Thursday 15 September 2016

मेरे लिए शिक्षक दिवस के मायने....

मेरे लिए शिक्षक दिवस के मायने....
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आज मैं जो कुछ भी हूँ, या ज़िंदगी में मैंने जो कुछ भी अच्छा किया है, उसमें मेरे शिक्षकों की बहुत बड़ी भूमिका है। नर्सरी की क्लास टीचर निर्मला दीदी ( हम मैम को दीदी कहते थे) का मातृवत वात्सल्य आज भी यादों में ताज़ा है। मेरी माँ बताती हैं, कि एक बार स्कूल जाने के बाद, मैंने फिर कभी स्कूल जाने में आना-कानी नहीं की। इसका बड़ा कारण मेरे शिक्षक और स्कूल का आत्मीय माहौल था। माँ एक और मज़े की बात बताती हैं। अगर घर पर कभी माँ पढ़ाती, तो मैं अक्सर उसे यह कहकर ख़ारिज कर देता, कि स्कूल में दीदी ने यह नहीं बताया या उन्होंने जो बताया है, वही ठीक है। फिर माँ ने स्कूल की टीचर को यह बात बतायी। जब टीचर ने मुझे समझाया कि घर वाले जो पढ़ाते हैं, वह भी ठीक होता है, तब जाकर तो मैंने माँ का पढ़ाया हुआ सही मानना शुरू किया।

छठी क्लास की एक ओर मज़ेदार बात मैं कभी नहीं भूलता। हमारे स्कूल में परीक्षा के नतीजे आने के बाद अभिभावकों को उत्तर पुस्तिका दिखायी जाती थी। मेरी माँ मेरी कापी देखने पहुँची। क्लास टीचर श्री रामदर्शन जी जमकर मेरी प्रशंसा कर रहे थे। पर माँ तो माँ ठहरी, कहने लगीं कि मेरा बेटा घर पर ग़ुस्सा बहुत करता है। क्लास टीचर मुस्कुराए और बोले, "बहन जी, दूधारू गाय की तो लात भी सहनी पड़ती है।"

स्कूल में एक शिक्षक थे -संदीप जी। वे हम सबको बड़े भाई जैसे लगते। पढ़ाई के अलावा भी ढेर सारी उलझनें हम उनसे खुलकर साझा करते। गणित और विज्ञान का डर उन्होंने ही हमारे मन से निकाला। किसी विषय में हमारी रुचि उस विषय के शिक्षक के व्यवहार, स्वभाव और पढ़ाने के तरीक़े पर भी काफ़ी हद तक निर्भर होती थी। संदीप जी कठिन माने जाने वाले विषयों को हँसते-मुस्कुराते पढ़ाते और हम भी हँसते-मुस्कुराते सीखते जाते।

माध्यमिक स्तर पर वाणिज्य के शिक्षक थे-राजकुमार सर। मैंने अपनी अभी तक की ज़िंदगी में इतनी सरलता, विनम्रता और सहजता बहुत कम लोगों में देखी है। कठिन विषय की समस्याएँ घर पर बुलाकर भी समझा देते।

मेरठ कालिज के शिक्षकों को भी मैं कभी नहीं भूलता। विशेषकर तत्कालीन प्राचार्य डॉ एस के अग्रवाल और हिंदी विभाग के शिक्षक डॉ रामयज्ञ मौर्य। प्रिन्सिपल सर जैसे कर्मठ और सहृदय व्यक्ति आसानी से नहीं मिलते। सकारात्मक मोटिवेशन देना तो कोई उनसे सीखे। जब मैं और मेरा साथी विवेक डिबेट में पहला पुरस्कार और शील्ड जीतकर लौटे, तो पूरे स्टाफ को अपनी जेब से जलेबी खिलाकर प्रिन्सिपल साहब ने हमारा उत्साह कई गुना बढ़ा दिया था।

दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के शिक्षकों से जीवन और सोच के आयामों का विस्तार करने की सीख मिलती। साहित्य-आलोचना जगत के बड़े-बड़े दिग्गजों का सान्निध्य मिलना भावभूमि, चेतना और संवेदना का विस्तार करता है। डॉ राजेंद्र गौतम, प्रो अपूर्वानंद, प्रो गोपेश्वर सिंह, प्रो हरिमोहन शर्मा, प्रो पूरनचंद टंडन जैसे शिक्षकों का व्यक्तित्व स्वयं में अभिप्रेरणा का स्त्रोत है। धवल जैसवाल और मिहिर पण्ड्या जैसे सीनियर्स से भी बहुत कुछ सीखा। हिंदी साहित्य के विविध आयामों को सीखने में डॉ विकास दिव्यकीर्ति का योगदान भुलाया नहीं जा सकता।  

ख़ैर, मुझे ऐसा लगता है कि शिक्षक सब कुछ देकर हमसे कुछ नहीं माँगते। हमें उन्हें सिर्फ़ थोड़ा सा सम्मान ही तो देना होता है, पर अक्सर वो भी हम नहीं दे पाते।
कुछ लोगों को यह भी लगता है कि शिक्षक दिवस साल में एक दिन ही क्यों मनायें, रोज़ ही शिक्षकों का सम्मान करना चाहिए। बात बिलकुल ठीक हैं। पर मुझे लगता है, कि अगर एक दिन शिक्षक दिवस जे बहाने ही सही, रस्म अदायगी के बहाने ही सही, यदि हम अपने शिक्षकों को मन से याद कर लें, दूर होने के कारण मिल न सकें तो फ़ोन ही कर लें और उनके योगदान के प्रति कृतज्ञता महसूस कर लें, तो इतना भी काफ़ी है।
देर से ही सही, सभी शिक्षकों और शिष्यों को शिक्षक दिवस की ढेर सारी शुभकामनाएँ!!!!
सीखते रहें और सिखाते रहें।

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