Tuesday 29 November 2016

परफ़ेक्शन को कहें 'ना'....

भारतीय संविधान में अनुच्छेद 51(क) में उल्लिखित मूल कर्तव्यों में से एक कर्तव्य है-
"व्यक्तिगत  और सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का सतत प्रयास करना, जिससे राष्ट्र निरंतर बढ़ते हुए प्रयत्न और उपलब्धि की नई ऊँचाइयों को छू ले।"
यानी इसमें कोई भी संदेह नहीं है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने निजी और सार्वजनिक जीवन में बेहतरी की ओर बढ़ने का प्रयास करते रहना चाहिए और जीवन में उत्कृष्टता की उपलब्धि करने में कोई कसर नहीं छोड़नी चाहिए। हम अपने आस-पास के माहौल में यह भी निरंतर देखते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति यथासंभव कुछ न कुछ प्रयास करके ऊँचाई को छूने की कोशिश करता ही है। एक किसान चाहता है कि अगली बार वह बेहतर पद्धतियों और संसाधनों का प्रयोग कर पहले से ज़्यादा और गुणवत्तापूर्ण फ़सल उगा सके, व्यापारी चाहता है कि उसके ग्राहक बढ़ते जाएँ और बैलेंस शीत शिखर को छू जाए, नौकरीपेशा कर्मचारी का ख़्वाब है कि उसका लम्बित प्रमोशन जल्दी से जल्दी हो और उसके वेतन ग्रेड में आशातीत बढ़ोतरी हो जाए। इसी तरह किसी भी परीक्षार्थी का इस दिशा में भरपूर प्रयास है कि वह परीक्षा में सफलता के लिए वांछित सभी चरणों में उत्कृष्ट प्रदर्शन कर अपने सपनों को साकार कर ले।
उत्कृष्टता और बेहतरी की यह चाहत स्वाभाविक है और यह जीवन की सार्थकता की ओर ले जाने में निश्चय ही सहायक होती है। अंग्रेज़ी के कवि RW Emerson ने इसीलिए युवाओं के विषय में इसीलिए लिखा भी है-
"Brave men who work while others sleep,
Who dare while others fly,
They build a nation's pillars deep,
And lift them to the sky."

पर कभी-कभी आगे बढ़ने और लक्ष्य प्राप्त करने की यह एक जुनून या फिर उससे भी ज़्यादा एक फ़ितूर का रूप लेने लगती है। कुछ साथियों को ऐसा लगने लगता है कि यदि उन्हें यूपीएससी की इस प्रतिष्ठित और सर्वोच्च मानी जाने वाली परीक्षा में सवाल होना है तो उन्हें हर काम परफ़ेक्शन के साथ करना होगा। इसी धुन में वह 'परफ़ेक्शनिस्ट' या 'अतिमानव' बनने की कोशिश करने लगते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि 'परफ़ेक्ट' जैसा कुछ भी नहीं होता और न ही इस परीक्षा या किसी भी परीक्षा में सफलता के लिए आपको परफ़ेक्ट बनने की दरकार है।
परफ़ेक्शनिस्ट बनने का यह आग्रह ही ख़ुद से एक ज़्यादती है। क्योंकि कोई भी चीज़ या कोई भी व्यक्ति स्वयं में पूर्ण या परफ़ेक्ट नहीं होता। एक कहावत भी है-
"There is no perfect way,
There are many good ways."
हममें से कोई भी अतिमानव या 'सुपरमैन' नहीं है और न ही ऐसा बनना वांछनीय है। ज़रूरत है तो सकारात्मक सोच के साथ, व्यापक व संतुलित नज़रिया अपना कर सही दिशा में निरंतर प्रयास करते जाने की, ताकि अभीष्ट लक्ष्य हासिल हो सके।
परफ़ेक्शन के इसी जुनून के चक्कर में कुछ अभ्यर्थी बहुत महत्वाकांक्षी और ग़ैर-व्यावहारिक योजनाएँ बनाते हैं। ये हवाई प्लान ज़मीन से कोसों दूर होने के कारण वास्तविकता में परिणत न तो होने थे और न ही हो पाते हैं। आपने अपने आस-पास ऐसे अभ्यर्थी ज़रूर देखे होंगे, जो प्लानिंग बहुत बड़ी-बड़ी करते हैं, पर लागू करने में बहुत पीछे रह जाते हैं।
कभी-कभी हम परीक्षा के तैयारी के दौरान हम परफ़ेक्ट बनना चाहते हैं और हर चीज़ को बेस्ट तरीक़े से करना चाहते हैं। जैसे- हमारा स्टडी मैटेरियल, कोचिंग, टेस्ट सिरीज़, रिवीज़न, नोट्स, दिनचर्या सभी कुछ सर्वश्रेष्ठ होना चाहिए, तभी हमारी
बेस्ट रैंक आएगी और हम UPSC टॉपर बनेंगे।
 इस तरह अतिशय भावुकता में हम बड़ी-बड़ी योजनाएँ और आदर्श दिनचर्या का शेड्यूल तो निर्मित कर लेते हैं, पर जब उनके क्रियान्वयन की बारी आती है तो शुरुआती उत्साह धीरे-धीरे ढीला पड़ने लगता है और हम अपने लक्ष्यों से पीछे होते जाते हैं, जिससे लक्ष्य लम्बित होने लगते हैं और एक के बाद एक बैकलॉग बढ़ता जाता है।
इस बैकलॉग का स्वाभाविक परिणाम धीरे-धीरे खीझ, कुंठा और तनाव के रूप में सामने आता है और हम नाहक ही परेशान और व्यग्र रहने लगते हैं। इस स्ट्रेस और व्यग्रता का असर हमारी पढ़ाई और तैयारी पर स्वाभाविक तौर पर पड़ता ही है और आदर्शवादी लक्ष्य पाना तो दूर, हम सामान्य से लक्ष्यों को पाने में ही ख़ुद को अक्षम पाने लगते हैं।
लाख टके का सवाल यह है कि अनावश्यक रूप से उपजी इस मुसीबत और नकारात्मकता से छुटकारा पाने के लिये हम पहले से ही क्या करें, क्या न करें और कैसे करें?
इस स्थिति से बचने के लिए बेहतर समाधान यह हो सकता है कि जब भी हम योजनाएँ या स्टडी प्लान बनाएँ तो उसमें अपनी क्षमता, सामयिक परिस्थितियाँ, अपने उद्देश्यों, अपनी महत्वाकांक्षा का स्तर और उपलब्ध समय आदि को ध्यान में रखते हुए प्लानिंग करें। यह प्लानिंग व्यावहारिकता और वास्तविकता के धरातल पर रहकर बनाएँ, न कि ख़ुद को 'सुपरमैन' समझकर। हर अभ्यर्थी की क्षमताएँ और अध्ययन व अभ्यास का स्तर व कौशल भिन्न-भिन्न होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति स्वयं में विशिष्ट होता है। किसी भी सफल व्यक्ति या टॉपर को ज्यों-का- त्यों कॉपी करने के चक्कर में अपने लिए अव्यावहारिक और कुछ हद तक 'असम्भव' योजनाएँ बनाना कहाँ की समझदारी है।
किसी सफल व्यक्ति से प्रेरणा लेना या उससे मार्गदर्शन लेना अच्छी बात है, पर अपने व्यक्तित्व और तैयारी के स्तर को अनदेखा करके 'परफ़ेक्शन' के पीछे भागना आपके लक्ष्यों को वास्तविकता से दूर ले जा सकता है। सिविल सेवा परीक्षा के दौरान कभी-कभी एक और उलझन होती है। हम हर महीने नए टॉपर का इंटरव्यू पढ़ते हैं और हर टॉपर से प्रभावित होते हैं। यह स्वाभाविक है और उससे प्रेरणा और मोटिवेशन लेने में कोई समस्या भी नहीं है। पर कभी-कभी हम किसी व्यक्ति या टॉपर को परफ़ेक्ट समझने के चक्कर में हम उसे आँख बंद करके उसका अनुकरण करने लगते हैं। मेरा यही आग्रह है कि 'प्रेरणा लें, पर अंधानुकरण न करें'।
यहाँ यह भी समझना ज़रूरी है कि टॉपरों और अभ्यर्थियों में कोई बहुत ज़्यादा फ़र्क़ नहीं होता। ज़्यादातर टॉपर सफलता के बाद ख़ुद स्वीकारते हैं कि उन्हें इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि वे ऐसा असाधारण प्रदर्शन करेंगे। कोई भी समझदार अभ्यर्थी सही तरीक़े से परिश्रम और पुरुषार्थ के द्वारा टॉपर बन सकता है।
 पर टॉपरों के इंटरव्यू पढ़कर कई अभ्यर्थी यह सोचकर कनफ़्यूज हो जाते हैं कि कौन सी रणनीति सर्वश्रेष्ठ है? कारण यह है कि हर टॉपर की पृष्ठभूमि, व्यक्तित्व और रणनीति अलग-अलग होती है। उदाहरण के तौर पर, किसी टॉपर ने किसी जॉब के साथ तैयारी की थी, किसी ने पढ़ाई करते-करते तैयारी की, तो कोई सब कुछ छोड़कर समर्पित रूप से तैयारी करके सफल हुआ। अब यदि हम सभी टॉपरों का एक साथ अनुकरण करने लगेंगे तो ऊहापोह होना तय है।
मैं आपसे यही कहूँगा कि आपके लिए वही रणनीति श्रेष्ठ है जो आपके व्यक्तित्व और अध्ययन-अनुभव-तैयारी के स्तर के अनुकूल हो। बस इतना सा करना है कि एक बेहतर और व्यावहारिक रणनीति बनाकर उसका क्रियान्वयन करें और सुधार की कोशिश हमेशा जारी रखें। छोटे-छोटे व्यावहारिक लक्ष्य बनाएँ और उन्हें धीरे-धीरे पूरा करते जाएँ और तनावमुक्त रहें।
'परफ़ेक्शन' का फ़ितूर न हो, पर सुधार (improvement) की उम्मीद और गुंजाइश हमेशा बनी रहनी चाहिए। हमें अपनी रणनीति और तैयारी के तरीक़े को लेकर इतना भी रक्षात्मक नहीं होना चाहिए कि हम ज़रूरत और प्रासंगिकता के मुताबिक़ समय-समय पर वांछनीय परिवर्तन और सुधार न कर सकें। ज़रूरत के मुताबिक़ ख़ुद को ढालने में हमेशा समझदारी होती है।
जब हम 'परफ़ेक्शन' पर बात कर ही रहे हैं तो हमें यह भी समझ लेना चाहिए, कि हम भले ही काल्पनिक 'परफ़ेक्शन' से दूर रहें, पर अपना 'बेस्ट' देने में भी कोई कसर न छोड़ें। अगर आप अपने लक्ष्य को लेकर गम्भीर हैं तो आप अपनी पूरी क्षमता और पूरे मनोयोग से तैयारी करें और अपना 'सर्वश्रेष्ठ' दें ताकि आप अपना 'सर्वश्रेष्ठ' प्रदर्शन कर वांछित परिणाम हासिल कर सकें। ये और बात है कि परिणाम आपके पक्ष में आए या नहीं पर कम से कम यह तसल्ली तो रहेगी कि मैंने अपना बेस्ट किया और अपनी कोशिशों में कोई कसर नहीं छोड़ी। यदि आपने पूरे मन और विश्वास से पुरुषार्थ करते हैं, तो आपकी सफलता कि सम्भावनाएँ कई गुना बढ़ जाती हैं।
अपने परिश्रम और अध्यवसाय की यात्रा को मस्ती के साथ एंजॉय करते हुए जब आप आगे बढ़ेंगे तो आपको महसूस होगा कि कभी-कभी 'सफ़र मंज़िल से भी ज़्यादा ख़ूबसूरत होता है।'
किसी शायर ने लिखा भी है-
'मंज़िल मिले या नहीं मुझे उसका ग़म नहीं,
मंज़िल की जुस्तज़ू में मेरा, कारवाँ तो है।'
अतः 'चरैवैति- चरैवेति' का मंत्र अपनाएँ और 'यूँ ही चला चल राही' की तर्ज़ पर अपना 'बेस्ट' देते हुए अपने सपनों की राह पर सही दिशा में पूरी हिम्मत के साथ बढ़ते जाएँ।

डियर ज़िंदगी, I Love you


कल शाम Dear Zindagi मूवी देखी। तभी से मन में कुछ हलचल सी थी, सोचा कि लिख डालूँ और साझा करूँ।
छोटी सी, प्यारी सी इस ज़िंदगी में रोज़मर्रा की भागदौड़ के बीच हल्की-फुल्की उठापटक, उलझनें और सुलझनें, छोटे-बड़े उतार-चढ़ाव होते रहना स्वाभाविक भी है और लाज़मी भी।
पर क्या हमने ख़ुद से कभी ये छोटा सा सवाल पूछा है कि हम इन मुश्किलों या छुट-पुट दिक्कतों का सामना करने के लिए तैयार हैं? क्या हम अपनी ज़िंदगी से और ख़ुद से सचमुच प्यार करते हैं? कहीं हम आगे बढ़ने की होड़ में रिश्तों और ख़ुद की ज़िंदगी से खिलवाड़ तो नहीं कर रहे?
मन के नाज़ुक से कोने में बसे इसी तरह के कुछ प्रासंगिक और ज़रूरी सवालों के जवाब ढूँढती यह मूवी अनायास ही किस तरह अपने ज़िंदगी को जी भर कर जीने और प्यार करने के नुस्ख़े सिखाती है, आइए जानें:-
- कभी-कभी हम मुश्किल रास्ता इसलिए चुनते हैं क्योंकि हमें लगता है कि महत्वपूर्ण चीज़ पाने के लिए हमें मुश्किल रास्ता चुनना चाहिए। हम मुश्किल रास्ता ही चुनना चाहते हैं। ख़ुद को सज़ा देना चाहते हैं। पर सवाल यह है कि अगर आसान रास्ता उपलब्ध है तो उसे अपनाने में भला क्यों हिचकिचाना? आसान रास्ता भी तो एक रास्ता है।
- जब कुर्सी ख़रीदने के लिए इतने विकल्प देखते हैं, तो ज़िंदगी के महत्वपूर्ण निर्णय लेने में उपलब्ध विकल्पों पर थोड़ा सोचना तो बनता है।
-क्या रोज़ 10 मिनट मम्मी-पापा से बात करना सचमुच इतना मुश्किल काम है?
-जीनियस वो नहीं होता जिसके पास हर सवाल का जवाब हो, बल्कि जिसके पास हर जवाब तक पहुँचने का धैर्य हो।
-हर टूटी हुई चीज़ जोड़ी जा सकती है।
-पागल वो है जो रोज़-रोज़ एक ही काम करता है और चाहता है कि नतीजा अलग हो।
- अपनी ज़िंदगी के स्कूल में हम सब ख़ुद अपने शिक्षक हैं।
- अपनी ज़िंदगी की पहेली को सुलझा आप ख़ुद ही सकते हैं पर दूसरे इसमें आपकी मदद ज़रूर कर सकते हैं।
- जो भी कहना चाहते हो, उसे कह डालो, बजाय दिल पर बोझ रखकर घूमने के।
-ज़िंदगी में जब कोई आदत या पैटर्न बनता दिखाई दे, तो उसके बारे में सोचना चाहिए। अक़्लमंदी ये जानने में है कि कहाँ उस आदत को रोकना है।
- कोई हमें अलविदा न बोल सके, उससे पहले ही हम इस डर से उसे अलविदा बोल देते हैं कि कहीं पहले वह अलविदा न बोल दे।
क्यों न उस डर को अलविदा बोल दें। आओ, आज़ाद हो जाएँ अपने मन में बसे डर से।
किसी शायर ने लिखा भी है-
'मुहब्बत के शहर का आबो-दाना छोड़ दोगे क्या,
जुदा होने के डर से दिल लगाना छोड़ दोगे क्या,
ज़रा सा वक़्त क्या गुज़रा, कि चेहरों पर उदासी है,
ग़मों के ख़ौफ़ से तुम मुस्कुराना छोड़ दोगे क्या।'