Friday 2 December 2016

परस्परोपग्रहो जीवानाम

ज़िंदगी की राह बहुत सारे उतार-चढ़ावों और सम-विषम परिस्थितियों से भरी है। आप बेहतरी के लिए जो भी प्रयास करते हैं, उनमें कोई न कोई बाधा आती ही है। कभी-कभी आप महसूस करते हैं कि मुश्किल वक़्त में किसी दोस्त या सम्बंधी की मदद से आप उस परेशानी का सामना कर पाए और फिर से आपने ज़िंदगी की लय पकड़ ली। आप यह भी महसूस करते हैं कि अगर इस वक़्त में कोई अपना या कोई अच्छा दोस्त आपका साथ देता तो शायद आप उस मुसीबत से जल्दी और आसानी से निकल जाते।
कभी-कभी हम यह भी पाते हैं कि ज्ञान और अनुभव का महासागर अनंत और विराट है और हम सबने अभी मुश्किल से इस सागर में एक-एक डुबकी ही लगाई है। अतः किसी एक इंसान के लिए इस विराट सागर की थाह पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। शायद इसीलिए प्रसिद्ध दार्शनिक सुकरात ने एक बार कहा था- 'मैं सबसे ज़्यादा ज्ञानी इस अर्थ में हूँ कि मैं ये जानता हूँ कि मैं कुछ भी नहीं जानता।' यानी सुकरात को अपनी अल्पज्ञता और अकिंचनता का बोध हो गया था और वे इस बात को महसूस कर चुके थे कि उन्होंने इस विराट महासागर की एक बूँद ही चखी है।
लिहाज़ा हम भी सुकरात जितने ज्ञानी भले ही न हों, पर हम यह महसूस तो करते ही हैं कि हम ज्ञान और अनुभव के इस विराट महासागर की थाह अकेले अपने दम पर नहीं पा सकते। हम इतना समझते हैं कि हमारी जानकारी और समझ का दायरा सीमित है और देश-काल-परिस्थितियों की कुछ सीमाएँ हैं, जिनके चलते हम कभी भी सब कुछ नहीं जान सकते। यहाँ यह भी समझना ज़रूरी है कि न तो इस जगत में सर्वज्ञ बनना सम्भव है और न ही वांछनीय।
इस सम्बंध में जैन दर्शन के आचार्य उमास्वामी ने 'तत्वार्थ सूत्र' में एक सूत्र लिखा था- 'परस्परोपग्रहो जीवानाम।' इसका अभिप्राय है कि 'इस जगत में प्राणी एक दूसरे के सहयोग से लाभान्वित होते हैं।' (Living beings benefit by helping each other.) यह सूत्र सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी की प्रक्रिया में भी उतना ही काम आ सकता है जितना आम ज़िंदगी जीते हुए।
अक्सर तैयारी के दौरान हम सोचते हैं कि हमें जो पता है, वो किसी को नहीं पता और हमें अपना ज्ञान और अनुभव सबसे छिपाकर रखना चाहिए। कुछ लोग यहाँ तक भी सोचते हैं, कि अगर मैंने अपने विचार/नोट्स/किताब/रणनीति किसी दोस्त या सहपाठी से साझा कर ली, तो कहीं उसके अंक मुझसे ज़्यादा न आ जाएँ। अगर किसी ने मेरे ज्ञान का फ़ायदा उठा लिया और वह मुझसे पहले परीक्षा में सफल हो गया, तो क्या होगा?
प्रिय दोस्तों, यह सोच एक संकुचित सोच है, जो आपको आगे बढ़ाने के स्थान पर पीछे की ओर धकेलती है। इस तरह की सोच से न तो आपका कोई भला होने वाला है और न ही किसी और का। वास्तविकता तो यह है कि सिविल सेवा परीक्षा की प्रकृति कुछ ऐसी है कि इसमें प्रत्येक अभ्यर्थी के अंक उसके अपने अध्ययन और कौशल के आधार पर आते हैं, न कि महज़ किसी का अनुकरण करने से।
बल्कि मैं तो यह कहूँगा कि इस प्रतिष्ठित परीक्षा के नवीनतम पैटर्न में 'परस्परोपग्रहो जीवानाम' का सूत्र बहुत काम का है और आपकी तैयारी को अधिक व्यापक, डायनमिक और समग्र बना सकता है। अगर किसी टॉपिक विशेष पर आप बेहतर जानते हैं और किसी अन्य टॉपिक पर आपके किसी साथी की समझ अच्छी है, तो आप दोनों मिलकर एक-दूसरे के सहयोग से लाभान्वित हो सकते हैं। 'ग्रुप डिस्कशन' इसका एक बेहतरीन तरीक़ा है। ग्रुप डिस्कशन से ज्ञान और समझ तो बढ़ती ही है, साथ ही बोलने और सुनने का कौशल भी विकसित होता है। इस तरह सिविल सेवा परीक्षा में आप अपेक्षाकृत फ़ायदे की स्थिति में होते हैं।
शास्त्र कहते हैं कि 'विद्या ही एकमात्र ऐसा धन है, जो बाँटने पर बढ़ता है।' यह एक बहुत दिलचस्प बात है। मैंने तैयारी के दौरान बहुत बार यह महसूस किया कि मैं अपने पढ़ी हुई विषयवस्तु को किसी अन्य अभ्यर्थी के साथ बाँट पाऊँ। मनोविज्ञान भी मानता है कि अगर हम अपना ज्ञान किसी से शेयर करते हैं, तो हम उस ज्ञान को लम्बे समय तक मस्तिष्क में स्टोर कर पाते हैं। किसी से कुछ सुनना और किसी को कुछ सुनाना, दोनों ही चीज़ों को याद रखने में मदद करते हैं। साथ ही, पढ़ा हुआ या सीखा हुआ ज्ञान शेयर करने से हमें भी उसके नए आयाम पता चलते हैं, जो शायद हमने पहले सोचे भी नहीं थे। इंग्लिश की एक कहावत भी है-
"Tell me and I forget,
Teach me and I remember,
Involve me and I learn."
'तत्वार्थ सूत्र' का यह सूत्र पढ़ाई में ही नहीं, तैयारी की लम्बी और थकाऊ प्रक्रिया की बाक़ी जटिलताओं में भी आपके काम आता है और आपका मनोबल भी बढ़ाता है। मिसाल के तौर पर, मैं अपने कुछ ऐसे साथियों को जानता हूँ, जो इस तैयारी के दौरान मिलने वाली असफलताओं या तनावों से बहुत प्रभावित हो गए और लगभग अवसाद या डिप्रेशन जैसी हालत में पहुँच गए। ज़िंदगी की दौड़ में अकेले आगे बढ़ने में कोई बुराई भी नहीं है, पर नितांत एकाकी हो जाना कभी-कभी समस्या का कारण बन जाता है। आप अपनी चिन्ताएँ/ तनाव/परेशानियाँ/ ख़ुशियाँ/ मस्तियाँ यदि कभी किसी से साझा नहीं करते, तो आप भीतर ही घुटने लगते हैं और यह स्थिति कभी-कभी जब ज़्यादा बढ़ जाती है, तो मनोविकारों में परिणत हो जाती है। जबकि यदि आप एक-दूसरे का सहयोग करते हुए, हँसते-मुस्कुराते, आगे बढ़ते हैं, तो ज़रूरत या तनाव की स्थिति में आपका साथ देने के लिए आपके परिजन, दोस्त और सहपाठी आपके साथ होते हैं। मत भूलिए कि महाबली हनुमान को भी उनकी भूली-बिसरी शक्तियाँ याद दिलाने के लिए जाम्बवंत को 'का चुप साधि रहा बलवाना' कहना पड़ा था।
साथ-साथ क़दम बढ़ाना का यह संदेश हमारे वेदों में भी दिया गया है-
'सं गच्छ्ध्वम सं वदध्वम सं वो मनांसि जानताम।'
यानी साथ-साथ चलो, साथ-साथ बोलो और साथ-साथ एक दूसरे के मन को समझो। इसका अर्थ यदि थोड़ी गहराई से समझें, तो हम जान पाएँगे कि ज़िंदगी की राह में हमारा एक-दूसरा का साथ देना या एक-दूसरे के काम आना कितना ज़रूरी है। विशेषकर, प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में तो यह बहुत उपयोगी है। एक-दूसरे से अपना ज्ञान-अनुभव-समझ-कौशल बाँटने से ये सभी बढ़ते ही हैं, घटने का तो कोई सवाल ही नहीं है।
किसकी मदद की कब ज़रूरत पड़ जाए, या कौन कब आपके काम आ जाए, इसका कुछ पता नहीं। कभी-कभी तो किसी परीक्षा या अवसर की जानकारी हमें किसी और से ही होती है। इसी तरह कभी-कभी हम किसी की मदद से ही तैयारी की सही दिशा और गति पकड़ पाते हैं। दोस्तों, 'बूँद-बूँद से ही सागर भरता है। एक-दूसरे के सहयोग से एक परस्पर प्रेम और सौहार्द का अद्भुत वातावरण बनाएँ और ज्ञान व सूचना की नवीन क्रांति
से लाभान्वित हों।
शुभकामनाएँ!!!

6 comments:

  1. bahut hi sundar lekhani , thanks bhaiya , all the best

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  2. Very very well said . It is reality of life

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  3. बहुत ही पवित्र और सकारात्मक विचार हैं। धन्यवाद

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